Saturday, October 16, 2010

डोपिंग के लिए जिम्मेदार कौन?

दिल्ली में  14 अक्टूबर को खत्म हुए 19वें राष्ट्रमंडल खेल भी  डोपिंग की काली छाया से दूर नहीं रह पाया । नाइजीरिया के ओसायोमी ओलुडामोला को मिथाइलहेक्सानिमाइन के सेवन के कारण 100 मीटर में जीता स्वर्ण पदक गंवाना पड़ा।

वहीँ नाइजीरिया के  बाधा धावक सैमुअल ओकोन को भी प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया गया। 

20 किमी महिला पैदल चाल की  भारतीय एथलीट रानी यादव  को नेंड्रोलोन के सेवन का दोषी पाया गया। यादव पैदल चाल में छठे स्थान पर रही थी लिहाजा उनसे पदक छिनने वाली कोई बात तो नहीं हुई, पर निश्चित तौर पर इस घटना से भारत को शर्मशार होना पड़ा। रानी को अभी अस्थायी तौर पर निलंबित किया गया है।

राष्ट्रमंडल खेलों के ख़त्म होने के अगले ही दिन यानी 15 अक्टूबर को नाइजीरिया की धावक फोलाशेड अबुगेन को प्रतिबंधित स्टेरायड के सेवन का दोषी पाए जाने पर महिलाओं की 400 मीटर और चार गुणा 400 मीटर रिले का रजत पदक गंवाना पड़ा।

इसके बाद अब तक दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में डोपिंग के दोषियों की तादाद चार हो गई है जिनमें से तीन नाइजीरियाई हैं।

राष्ट्रमंडल खेलों से पहले एशियाई  और 2002 मैनचेस्टर  राष्ट्रमंडल खेलों की चैम्पियन भारोत्तोलक  मणिपुर की सानामाचू  चानू  इस साल अगस्त में हुए परिक्षण में पोजिटिव  पाई गईं।  उन्हें प्रतिबंधित मिथाइलहेक्सानिमाइन के सेवन का दोषी पाया गया । यह पदार्थ फ़ूड सप्लीमेंट  में पाया जाता है। गौरतलब है कि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी(वाडा) ने इस पदार्थ को इसी साल प्रतिबंधित किया है ।

चानू इससे पहले भी 2004 एथेंस ओलम्पिक  के ठीक पहले  डयूरेटिक  के लिए पोजिटिव पाई गई थी,जिसके बाद उनपर दो साल का प्रतिबन्ध लग गया था। 

इस साल चानू के साथ 11 अन्य खिलाड़ी भी डोपिंग के दोषी पाए गए हैं.जिसमें पांच पहलवान,चार  एथलीट, दो तैराक और एक नैट बाल खिलाड़ी है।

 सवाल यह उठता है कि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा)  और राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी(नाडा) जैसी संस्थाओं के रहते हुए खिलाड़ी प्रतिबंधित दवाओं के सेवन से बाज क्यों नहीं आते हैं? क्या उन्हें मालुम नहीं होता कि पकड़े जाने के बाद उनपर प्रतिबन्ध लग सकता है और यदि वह खेलों के दौरान इस तरह की दवाओं  का सेवन करते हैं तो जीते हुए पदक  भी छीने जा सकते हैं, जैसा कि पूर्व में कई खिलाड़ियों के साथ हो चुका है ।

यहां यह बात भी दीगर है कि चानू और अन्य खिलाड़ी परिक्षण के ठीक पहले डोपिंग के दोषी पाए गए हैं । मतलब यह जानते हुए कि ट्रायल में डोपिंग परिक्षण होना तय है ये खिलाड़ी प्रतिबंधित दवा लेने का लोभ संवरण नहीं कर पाए।

सानामाचू चानू  ने  डोपिंग के पहले परिक्षण यानी 'ए' सैम्पल  में पोजिटिव पाए जाने पर कहा कि उन्हें नहीं मालूम  उनके शरीर में यह पदार्थ कहां से आया उन्होंने तो सिर्फ फ़ूड सप्लीमेंट लिया था ।  उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि यह प्रतिबंधित दवाओं में शामिल है या नहीं ।

 चानू के  कहने का मतलब है कि खिलाड़ी क्या खा - पी  रहे हैं, इस बारे में उनके कोच या डॉक्टर  जैसा कहते है वे  वैसा ही  करते हैं । पर आश्चर्य है कि जब कभी डोपिंग के मामले सामने आते है तो सिर्फ और सिर्फ खिलाड़ियों को ही दोषी माना  जाता है उनके कोच  डॉक्टर  और खेल के अन्य अधिकारियों को नहीं. जबकि खिलाड़ियों के खान पान से लेकर ट्रेनिंग तक सारी  जिम्मेदारी कोच,  डॉक्टर और उस खेल से सम्बंधित अधिकारियों की भी  होती है तो फिर ऐसे में अकेले खिलाड़ी  को ही निशाना  क्यों बनाया जता  है? यह तो संभव ही नहीं कि कोच,डॉक्टर  की जानकारी के बिना कोई  खिलाड़ी खुद से ऐसी प्रतिबंधित दवाओं का सेवन करे.और कोच डॉक्टर को इसकी भनक तक ना लगे ।

वाडा के 1999 में अस्तित्व में आने के बाद  डोपिंग  के दुष्प्रभाव और खेलो को डोप मुक्त बनाने को लेकर  वाडा  लगातार प्रयासरत है । कौन सी दवा  को प्रतिबंधित सूची में शामिल किया  गया है इसकी जानकारी  भी वह वाडा से जुड़े देशों को समय- समय पर मुहैया  कराता रहता है ।

मगर इन सब के बावजूद  इस साल अगस्त तक  राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा)  के  2047 एथलीटों से लिए  नमूनों  में से  103 एथलीट विभिन प्रतिबंधित पदार्थों के लिए  पोजिटिव  पाए गए. यह अच्छी  बात है कि ऐसे मामलों की संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है पर अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना  बाकी  है ।

पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या सिर्फ और सिर्फ खिलाड़ी ही डोपिंग के लिए जिम्मेदार है? देखा   जाए तो खिलाड़ियों के ट्रेनिंग  से ले कर उनके चयन  तक के कार्य  भारतीय खेल प्राधिकरण करता है, फिर डोपिंग में पकडे जाने के बाद सिर्फ खिलाड़ी ही  क्यों दोषी ठहराए जाते हैं.?क्या इसके लिए डॉक्टर, कोच और खेल अधिकारी बराबर के जिम्मेदार नहीं है?

वाडा के वर्त्तमान अध्यक्ष डेविड  हाउमैन का भी मानना  है कि  यदि डोपिंग  को कोच,डॉक्टर या खेल के अधिकारी बढ़ावा देते है तो उनपर भी कड़ी कार्रवाई की  जानी चाहिए । पर असल में  अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। होता यह है कि ऐसे मामले प्रकाश  में आने पर खिलाड़ी पर और अधिक से अधिक उस खेल संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। कोच, डॉक्टर और खेल अधिकारी आसानी से बच निकलते हैं।

 नाडा को  डोपिंग को जड़ से खत्म करने के लिए  सख्त कदम उठाने की जरुरत है। अगर कोई खिलाड़ी किसी प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया जाता है तो पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराई जानी चाहिए और  जो भी इस मामले  में दोषी पाया जाता है  उन सभी पर  कड़ी कार्रवाई,जिसमें आजीवान प्रतिबन्ध  भी शामिल हो, की जानी चाहिए ताकि कोई भी खिलाड़ी,कोच डॉक्टर या  खेल अधिकारी  डोपिंग को बढ़ावा  न देने पाए और भविष्य में खेलों में एक भी डोपिंग के मामले ना होने पाए ।

Monday, September 13, 2010

कब तक चलेगी मुंडा सरकार?

अर्जुन मुंडा के झारखण्ड के आठवें और खुद तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के साथ ही झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो गई. पर इसके साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या बीजेपी और झामुमो का गटबंधन लम्बा चल पाएगा?

पूर्व में देखें तो तीन माह पहले ही शिबू सोरेन की जो गटबंधन सरकार आराम से चल रही थी कि तभी आश्चर्यजनक तरीके से शिबू सोरेन ने अप्रैल में यूपीए सरकार को बचाने के लिए संसंद में हो रहे कटौती प्रस्ताव पर यूपीए के पक्ष में वोट डाल आए,जिससे स्वाभाविक तौर पर  बीजेपी नाराज हुई और गटबंधन सरकार से तुरंत समर्थन वापस लेने कि घोषणा कर डाली.

बाद में शिबू सोरे के बेटे हेमंत सोरेन ने गडकरी से मिल कर यह सफाई देने की कोशिश की कि उनके पिता ने गलती से यूपीए के पक्ष में वोट डाल दिए.इस सफाई से भाजपा संतुष्ट नहीं हुई. सही भी है जो व्यक्ति खुद कई बार सांसद रहा हो उससे इस तरह कि गलती होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

इसके बाद दोनों पार्टियों के बीच सरकार बचाने को लेकर कई दौर की बैठकें हुईं.इस दौरान हेमंत सोरेन ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा भी की पर उनके इस घोषणा से खुद उनके पार्टी के कई नेता सहमत नहीं हुए.

खुद शिबू सोरेन लगातार यह कहते नज़र आए की वे अब भी मुख्य मंत्री है और उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है.

पर करीब एक महीने तक चले राजनीतिक उठा पटक के बाद अंततः भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया . बीच में बीजेपी के हजारीबाग से सांसद और वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा के मुख्यमंत्री बनने की बात चली थी, पर बात बनी नहीं और एक जून को केंद्र सरकार ने राज्यपाल एम ओ एच फारुख के रिपोर्ट के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दी.

बीजेपी ने पहले समर्थन वापसी की घोषणा की और बाद में सरकार बनाने की लालच में अपने बयान से पलट गई.उससे पार्टी की खासी किरकिरी हुई. खुद पार्टी के अन्दर पार्टी के कुछ बड़े नेता वहां सरकार बनने के पक्ष में नहीं थे वहीँ राजनाथ सिंह और खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी सरकार बनाने के पक्ष में थे.

बाद में शिबू सोरेन के ढुलमुल रवये को देखते हुए बीजेपी पीछे हट गई.

अब सवाल उठता है कि पिछले तीन महीने में दोनों पार्टियों के बीच ऐसी कौन सी खिचड़ी पकी कि अचानक दोनों पार्टियों ने फिर से एक साथ सरकार बनने का फैसला कर लिया यदि साथ रहने ही था तो आखिर तीन महीने पहले अलग ही क्यों हुए थे ? इन सब सवालों का दोनों पार्टियों के पास जवाब नहीं है.

यह ठीक है कि राजनीति में सभी पार्टियों को जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने का हक़ है पर ये हक़ सिर्फ हक़ न हो बल्कि इस हक़ का वाजिब आधार हो.वर्त्तमान में यह गटबंधन वाजिब आधारों पर नहीं खड़ी है, बल्कि दोनों पार्टियों का मकसद सिर्फ और सिर्फ सत्ता में बने रहने का है.

दोनों पार्टियां स्वाभाविक जोड़ीदार भी नहीं है और दोनों के वैचारिक मतभेद जग जाहिर हैं. दोनों ने पिछले साल हुए चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे. झारखण्ड की जनता ने भी किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया था. ऐसे में दोनों पार्टियों का एक बार फी से साथ आना यही साबित करता है कि दोनों पार्टियां सिर्फ सत्ता की भूखी हैं वे ज्यादा दिनों तक सत्ता से दूर नहीं रह सकती हैं .

पर पिछले हफ्ते के दौरान वहां हुए ताजा राजनितिक घटनाक्रम से खुद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व हतप्रद है. भाजपा के संसदीय दल के नेता लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज सरकार बनाए जाने के विरोध में है. भाजपा के केंद्रीय संसदीय बोर्ड ने तीन महीने पहले फैसला लिया था की वो अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ अब किसी प्रकार का गटबंधन नहीं करेंगें.


दोनों नेताओं का अर्जुन मुंडा के शपथ ग्रहण समाहरोह में न जाना उनके इसी रुख का परिचायक है कि वे इससे खुश नहीं है. हालांकि पार्टी सूत्रों ने इसकी वजह आडवाणी के गणेश चतुर्थी की पूजा में शामिल को को बताया है. खबर यह है की आडवाणी यशवंत सिन्हा को मुख्य मंत्री बनाए जाने के पक्ष में थे.

पहले की ही तरह इस बार भी गडकरी और राजनाथ सिंह झाखंड में सरकार बनाने के पक्ष में दिखे और इस कदम को सही ठहराया .पर खुद गडकरी का मुंडा के शपथ समाहरोह में भाग न लेने से झारखण्ड में अटकलों का बाज़ार गर्म रहा और सभी अपने तरीके से इसका आकलन करने में जुटे रहे.

लाख टके का सवाल यह है की क्या दोनों पार्टियां इस गटबंधन को बाकी बचे हुए चार साल तक चला लेंगीं? ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि शिबू सोरेन के बार-बार पाला बदलने के इतिहास को देखें तो इस बात कि सम्भावना कम ही दिखाई देती है.

हां वहां की जनता में जरुर यह उम्मीद जागी है कि उन्हें आने वाले समय में एक स्थिर सरकार मिलेगी.और नई सरकार राज्य का विकास करेगी.

पर शायद ही ऐसा हो पाए क्योंकि झारखण्ड को बने 10 साल हो चुके हैं और इस दौरान आठ मुख्य मंत्री बन चुके हैं. अबतक कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है.

अंदरखाने कि खबर तो यह है कि दोनों पार्टियों ने सत्ता में बने रहने के स्वाभाविक लाभ को देखते हुए एक बार फिर से हाथ मिलाने का मन बनाया है पर जहां मनभेद हो वहां शायद ही कोई समझौता ज्यादा दिन तक टिक पाए.