Sunday, July 15, 2012

                                   ममता को नहीं मिल रहा है कैंडिडेट
तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को राष्ट्रपति चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के राष्ट्रपति चुनाव में खड़े होने से इनकार करने के बाद अब उप राष्ट्रपति पद के लिए तृणमूल कांग्रेस द्वारा सुजाए गए दो नामों बंगाल विधानसभा की पूर्व स्पीकर कृष्णा बोस और बंगाल के ही पूर्व राज्यपाल रहे और गांधी  जी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी में से गोपाल गांधी ने उप राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है.इससे ममता  बनर्जी को दोहरा झटका लगा है. पहला झटका कलाम ने पिछले महीने दिया था जब उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव दोबारा लड़ने से मना कर दिया था.अब गांधी के इनकार के बाद ममता के सामने अजीब सी पैदा हो गई है.इससे कई सवाल भी खड़े हो गए हैं..पहला ये कि ममता बनर्जी जब किसी उम्मीदवार के नाम का एलान करतीं हैं तो क्या वह सम्बंधित उम्मीदवार से पूछती नहीं है कि वो चुनाव लड़ना चाहते भी हैं या नहीं.दूसरा सवाल ये है कि क्या ममता बनर्जी के पास कोई इनके अलावा कोई और कैंडिडेट नहीं है जो ये चुनाव लड़ सके? सवाल यह भी उठता है कि क्या ममता बनर्जी सिर्फ यूपीए का विरोध करने के लिए राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की घोषणा कर रही हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने उन्हें बंगाल पैकेज देने से इनकार कर दिया है?
जो भी हो मगर कलाम और गोपाल गांधी के चुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद ममता की राजनीतिक सोच पर सवालिया निशान जरुर लग गया है.

Friday, June 1, 2012

बीजेपी का दोहरा चरित्र

बुधवार(30 मई) को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के नेतृत्व में पार्टी नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल को वापस बुलाने की मांग को लेकर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील से मुलाकात की . बीजेपी का आरोप है कि बेनीवाल ने राजस्थान में 600 करोड़ रूपए की कृषि भूमि पर कब्जा कर रखा है.प्रतिनिधिमंडल ने अपने मांग के समर्थन में राष्ट्रपति को कुछ दस्तावेज भी सौंपे हैं जिसमें उन्होंने जयपुर के सहकारिता रजिस्ट्रार कार्यालय द्वारा 2 मई को जारी आदेश के बारे में उन्हें जानकारी दी.

गडकरी ने कहा कि सहकारिता रजिस्ट्रार ने कहा है कि राजस्थान सरकार की 1000 करोड़ रूपए की जमीन को हड़पने के लिए राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल किया गया है.बेनीवाल ने इस जमीन के एक हिस्से पर अवैध रूप से कब्जा कर रखा है.हालांकि, कमला बेनीवाल का दावा है कि वे और सोसायटी के अन्य सदस्य पिछले 58 साल से इस जमीन पर 16 घंटे कृषि श्रम कर रहे थे. वहीं रजिस्ट्रार ने अपने आदेश में इस दावे को गलत ठहराया है.

गडकरी ने कहा कि जबतक बेनीवाल राज्यपाल हैं तबतक राजस्थान सरकार उनपर मामला दर्ज नहीं कर सकती है, लिहाजा बीजेपी ने राष्ट्रपति से मांग की है वे कमला बेनीवाल को पद से हटाने का आदेश दें ताकि जमीन पर कब्जे के मामले की जांच पूरी हो सके.

अब सवाल ये उठता है कि यही भाजपा, यही स्टैंड गुजरात के सन्दर्भ में क्यों नहीं उठाती है.जहां, साल 2002 में हुए गोधरा में ट्रेन को जलाने (जिसमें 59 लोग जिन्दा जल गए थे) के बाद भड़के साम्प्रदायिक दंगों में 2000 से ज्यादा मुसलमान भाईयों को अपनी जान गवानी पड़ी थी. यदि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते तो इतने बड़े पैमाने पर हुए खून खराबे को रोका जा सकता है .मगर उन्होंने इन दंगों को रोकने के लिए कोई उपाय नहीं किए.

बीजेपी ने जो मांग राष्ट्रपति से बेनीवाल के सम्बन्ध में की है, वही पैमाना वह मोदी के लिए क्यों नहीं अपनाती है? क्या यह संभव है कि मोदी के पद पर रहते गुजरात में दंगों से सम्बंधित कोई भी जांच निष्पक्ष रूप से चल सके? मगर बीजेपी मोदी को दंगों के लिए दोषी नहीं मानती है.यही भाजपा के दोहरे चरित्र को उजागर करता है. एक तरफ तो वह यह मानती है किसी व्यक्ति के पद पर रहने से उसके खिलाफ निष्पक्ष जांच नहीं चलाई जा सकती है,मगर यही बात वह गुजरात के सन्दर्भ में लागू नहीं करती है. किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई आरोप लगता है और मोटे तौर पर यह लगता है कि मामले में उस व्यक्ति की संलिप्तता है, तो ऐसे में उस व्यक्ति को पद से हटा दिया जाना चाहिए तभी उसके खिलाफ जांच बिना भेदभाव के चल सकती है.

आम जीवान में भी किसी सरकारी दफ्तर में किसी के खिलाफ गम्भीर आरोप लगने पर पहले उस व्यक्ति को निलंबित कर दिया जाता है उसके बाद ही उसके खिलाफ जांच शुरू होती है.मगर बीजेपी दोहरे चरित्र की शिकार है. वह करती कुछ और कहती कुछ और है.









Thursday, June 23, 2011

रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति की प्रासंगिता


रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने अपनी मौद्रिक नीति की  मध्य तिमाही समीक्षा में एक बार फिर  नीतिगत दरों में  इजाफा किया है. रेपो रेट में चौथाई फीसद की बढ़ोतरी की है तो रिवर्स रेपो रेट में भी इतने ही फीसद का इजाफा किया है..इसे मिला कर  पिछले  साल मार्च 2010 से लेकर अब तक रिजर्व बैंक 10 बार अपनी ब्याज दरों में वृद्धि  कर चुका है. इस वृद्धि के साथ रेपो रेट अब 7.50 फीसद हो गया है और रिवर्स रेपो रेट 6.5 फीसद हो गया है.रिजर्व बैंक ने बाकी दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं की है.


यह पहले से तय था की रिजर्व बैंक अपनी ब्याज दरों में चौथाई फीसद का इजाफा कर सकता है बाजार विशेषज्ञ भी इतने ही फीसद बढ़ोतरी का अनुमान लगा रहे थे. सो यह बाजार के अनुमान के अनुसार ही रहा.  इस बढ़ोतरी के साथ ही  आवास लोन और ऑटो और अन्य लोन मंहगे हो
 जाएंगे.


वाणिज्यिक बैंकों का भी मानना है की इससे उत्पादन लागत बढ़ेगी और बैंक ग्राहकों को कम ऋण उपलब्ध करा पाएगी. और देर सबेर बैंक भी अपनी  ब्याज दरें बढ़ाने को मजबूर हो जाएंगे.  अर्थशास्त्री और बाज़ार विशेषज्ञ इस वृद्धि से खुश नहीं है, उनका मानना  है कि इससे औधोगोक विकास की दर धीमी होगी .हालांकि रिजर्व बैंक ऐसा नहीं मानता है, बैंक का मानना है कि बेलगाम होती महंगाई  दर को  और बढ़ने से रोकने के लिए नीतिगत दरों में वृद्धि ही एकमात्र रह्स्ता रह गया था.


गौरतलब है कि इस हफ्ते खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर में मामूली कमी दर्ज  की गई है पिछले हफ्ते  यह 9.01 फीसद  पर थी  और अब यह 8 .96  फीसद पर पहुच गई है. वहीँ सकल थोक  मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर मई महीने में 9.06 के स्तर पर   पहुंच गई  है.


सवाल यह है कि रिजर्व बैंक के लगातार महंगाई दर को नियंत्रित करने की सारी कवायद क्यों नहीं काम कर पा रही है दूसरा क्या रिजर्व बैंक के पास महंगाई दर को काबू में रखने के लिए सिर्फ  नीतिगत दरों में इजाफा या घटाने के सिवा और कोई  उपाय नहीं रह गया है ? जबकि रिजर्व बैंक ने पिछले महीने  3 मई को  सालाना मौद्रिक नीति की  घोषणा करते हुए कहा था कि सिर्फ नीतिगत दरों में कमी या बढ़ोतरी करने से महंगाई दर को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. महंगाई को नियंत्रित करने के लिए सरकार को कुछ और उपाय करने होंगें


फिर बार- बार रिजर्व बैंक इसी नीति को अपनाने को क्यों मजबूर हो जाता है ? यह  भी एक सच्चाई है कि पिछले एक साल से रिजर्व बैंक की मुद्रास्फीति   दर को काबू करने की  कोशिश ना काफी साबित हुई है और यह अब भी चिंताजनक स्तर पर बनी हुई है.  रिजर्वे बैंक चाहता है की महंगाई की दर 5 से 6 फीसदी तक रहे. पर ऐसा निकट भविष्य हो होता नज़र नहीं आता है. कारण सरकार फिर ईंधन के मूल्यों में वृद्धि करने का मन बना चुकी है. 


अगर ऐसा होता है तो महंगाई का एक  बार फिर बढ़ना तय है और इसका असर लंबे समय  तक रहेगा.


दरअसल अब रिजर्व बैंक की मुद्रास्फीति की दर को काबू में रखने के लिए सिर्फ मौद्रिक नीति को बढ़ाने या घटाने से काम नहीं  चलेगा अगर सरकार को मुद्रास्फीति की लगाम कसके रखनी है तो दोनों को मिल कर इस दिशा में काम करना होगा.


महंगाई बढ़ने के कारण स्थानीय होते है. महंगाई  दर को बढ़ाने में सबसे अधिक भूमिका खाद्य पदार्थ निभाते हैं. भारतीय अपनी आय का एक बहुत बड़ा भाग खाने पीने पर खर्च करते है.हम बहर्तियों के लिए भी महगाई का मतलब खाद्य पदार्थों में वृद्धि से ही होता है.


एक तरफ तो   खाद्य पदार्थों की मांग और आपूर्ति में बहुत बड़ा असंतुलन है तो दूसरी तरफ सरकार ईंधन के दामों में पिछले एक साल से लगातार वृद्धि करती जा रही है  जिसके कारण भी महंगाई दर लगातार उंची बनी हुई है सरकार के इंधन के दामों में वृद्धि करते ही दूसरे सभी खाद्य और अखाद्य पदार्थों में स्वतः वृद्धि हो जाती है.यहीं पर सरकार को अपनी प्रभावी  भूमिका निभाने की जरुरत होती है.पर सरकार इस स्तर पर कुछ ख़ास नहीं कर पाती है लिहाजा दाम बढ़ाने में स्थानीय कारक जैसे माल भाड़े में वृद्धि, वस्तुओं की कालाबाजारी इत्यादि  हावी हो जाते है और फिर जब रिजर्व बैंक की महंगाई की दर को नियंत्रित करने के लिए उठाई  गई सारी कवायद बेकार साबित  होती है. और
 महीने डेढ़ महीने बाद रिजर्व बैंक को एक बार फिर से अपनी ब्याज दरें बढानी पड़ती है


कम से कम पिछले एक साल से तो यही देखने में आ रहा है.


महंगाई दर को उचित  स्तर पर बनाए रखने के लिए यह जरुरी है कि   सराकार और रिजर्वे बैंक मिलकर काम करें. एक बार ब्याज दर बढ़ने  पर यह सरकार की जिम्मेदारी है की वह बाज़ार पर नज़र रखे कि  इस वृद्धि का कोई बेजा फायदा तो नहीं उठा रहा है. पर वर्त्तमान में ऐसा लगता है कि  सरकार के पास इसे चेक करने की कोई विधि नहीं है. लिहाजा  सरकार भी बाजारी ताकतों के आगे नतमस्तक हो जाती है और मुद्रास्फीति की दर लगातार उंची बनी रहती है. 


अब वक्त आ गया है कि रिजर्व बैंक और सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति के अलावा कोई और विकल्प तलाशे तभी आम लोगों को बध्तियो महंगाई दर से छुटकार मिल सकता है.

Sunday, June 5, 2011

जबेरा उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा के लिए सेमी फायनल

25 जून को दमोह जिले के जबेरा सीट पर होने वाले उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए साल 2013  में होने वाले  विधान सभा आम चुनाव के पहले सेमी फायनल की तरह है.जो इस सीट पर जीत दर्ज करेगा वह अपने आप को 2013 में होने वाले चुनाव के लिए स्वाभाविक हकदार की तरह अपने आप को प्रचारित करेगा. हालांकि यह 2013 में ही तय हो पाएगा  कि हवा किस के पक्ष में है.
 

जबेरा सीट कांग्रेस विधयाक रत्त्नेश सालोमन के निधन होने से खाली हुई है. रत्त्नेश सालोमन की  छवि अपने क्षेत्र में एक  लोकप्रिय नेता के रूप में रही है. सालोमन दमोह जिले की राजनीति में लगभग ढाई दशक से सक्रिय थे। वे पहली बार अर्जुन सिंह सरकार के समय संसदीय सचिव बने। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस के शासनकाल में वन और शिक्षा मंत्री का पद भी संभाला।
 

कांग्रेस ने इस सीट से सालोमन की  बेटी और दन्त चिकित्सक तान्या  सालोमन को  अपना उम्मीदवार बनाया है. इसकी एक मात्र वजह सालोमन की मृत्यु से  उपजी सहानुभूति वोटों को पाना है. हालांकि  क्षेत्र की जनता भी तान्या को ही अपना उम्मीदवार देखना चाहती है. उधर भाजपा ने  पूर्व विधायक दशरथ सिंह को टिकट दिया है
 

बीजेपी ने तो जबेरा और एक और अन्य सीट महेश्वर पर  अपनी तैयारी  काफी पहले शुरू कर दी थी. वही कोन्रेस ने इस सीट पर अपनी तैयारी हाल ही में कांतिलाल भूरिया के मध्यप्रदेश  कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन होने के बाद शुरू की. 
 

कांति  लाल भूरिया  के लिए भी यह सीट प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई  है क्योंकि उनके नेतृत्व में कांग्रेस पहली बार चुनाव लड़ने जा रही है. हार-जीत्त उनका राजनितिक भविष्य तय करेगी. 


हाल ही में मंडीदीप नगर पालिका अध्यक्ष पद के चुनाव के साथ ही निगम के 18 वार्डों पर चुनाव संपन्न हुए है. इस चुनाव में भाजपा ने तो नगर पालिका अध्यक्ष चुनाव मात्र 131 मतों से जीता . यह सीट पहले कांग्रेस के पास थी.
 

18 वार्डों पर हुए चुनाव में से 9 सीटें कांग्रेस और 9  सीटें भाजपा  के झोली में गई. 


वैसे यह चुनाव नगर पालिका परिषद् के लिए हुआ था पर दोनों पार्टियों ने इसे जीतने के लिए  कोई कसर नहीं छोड़ी थी. कांग्रेस के मध्य प्रदेश के लगभग सभी दिग्गज नेताओं ने चुनाव प्रचार किए.
 
 
पूर्व  मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी ने भी चुनाव प्रचार किया. मंडीदीप  पचौरी के प्रभाव क्षेत्र का मना जाता है भूरिया ने भी इसे समझते हुए उम्मीदवारों के सलेक्शन में उन्हें खासी तवज्जो दी. कांग्रेस ने फिल्म कलाकार असरानी को भी चुनाव प्रचार में  उतारा.


भाजपा के तरफ से भी प्रदेश के तमाम बड़े नेताओं से लेकर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज  तक ने चुनाव प्रचार किया.  प्रचार के अंतिम दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह खुली जीप में  पार्टी उम्मीदवार सविता जैन के साथ प्रचार किया और  मतदाताओं से अपील की कि  भाजपा को जीताएं वे खुद इस क्षेत्र में विकास सुनिश्चित करेंगें. 


यहां मंडीदीप चुनाव का उल्लेख इसलिए जरुरी  था क्योंकि इस चुनाव को  दोनों पार्टियों ने काफी गंभीरता से लिए.ऐसा लगा जैसे यह नगर पालिका परिषद्  का चुनाव न हो कर विधान सभा या लोक सभा का चुनाव हो.
 

कांग्रेस फरवरी में हुए कुक्षी और सोनकच्छ सीट पर हुए उपचुनाव हार चुकी है.दोनों ही सीटें कांग्रेस की  परंपरागत सीटें रही है. लिहाजा कांग्रेस इस बार काफी सतर्क  है और वह किसी भी कीमत पर  इस सीट आर अपनी जीत दर्ज करना चाहती है .
 
 
भाजपा ने तो इस सीट पर अपन तैयारी पहले ही शुरू कर दी थी. जैसे ही चुनाव आयोग ने जबेरा सीट पर चुनाव की घोषणा की भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने अपने सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए.अब वे  एक जून से 23 तारीख  तक  दमोह में ही रहेंगें और चुनाव की सभी तैयारियों को देखेंगें.
 
 
परन्तु इस बार जबेरा सीट पर कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है,इसका कारण  कांग्रेस का लोगों में  पुनः विश्वास का जाग उठा है  ऐसा नहीं है ,वजह है रत्त्नेश सालोमन की क्षेत्र में किए गए कार्यों की वजह से लोकप्रियता  हासिल करना. क्षेत्र की जनता ने भी एक स्वर से   तान्या को उम्मीदवार बनाए जाने की सिफारिश की.
 
 
भाजपा वैसे तो इस सीट पर अपना पूरा दमखम लगा रही है.इस सीट को जीतने के लिए वह काफी पहले से तैयारी भी कर रही है.  पर शायद इस बार जनता कांग्रेस को जीत का उपहार दे दे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.

Tuesday, May 10, 2011

23 करोड़ की आबादी में कहां है भाजपा?

चार  राज्यों असम, पश्चिम  बंगाल,तमिलनाडु और केरल और एक केंद्र शासित  प्रदेश पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं.
चुनाव परिणाम 13 मई   को घोषित किए जाएंगें.

असम में कांग्रेस 2001 से सत्ता  में हैं तो केरल में वाम लोकतान्त्रिक मोर्चा 2006 से सत्ता में है. तमिलनाडु में द्रमुक और कांग्रेस की गटबंधन  सरकार 2006 से शासन में है. वही पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकार है.

इन सभी राज्यों में अपने को राष्ट्रीय  पार्टी कहने वाली भाजपा कहीं भी नहीं है. केरल तमिलनाडु और पुडुचेरी में तो भाजपा का एक भी विधायक नहीं है.असम में पार्टी के 126 सदस्यीय विधानमंडल में मात्र 10 विधायक हैं.

अगर जनसंख्या की बात की जाए तो इन राज्यों की  जनसंख्या करीब 23 करोड़ है. इतनी बड़ी आबादी के बीच भाजपा की पहुंच न के बराबर है.

वोट  शेयर की बात की जाए तो पुडुचेरी में बीजेपी  का वोट शेयर महज 3.35 प्रतिशत है.असम में 10.88 फीसदी,केरल में 4.83 फीसदी,तमिलनाडु में 2.02 फीसदी और बंगाल में 1.93 फीसदी.


बीजेपी को अस्तित्व में आए 31 साल होने को है.लेकिन फिर  भी वो अब तक इन दक्षिण राज्यों में अपनी उपस्थति दर्ज नहीं करा पाई है.

बीजेपी का शुरू से मुख्य ध्यान हिंदी भाषी राज्यों में रहा है. जहां वह अपने हिंदुत्व एजेंडे के साथ ज्यादा सहज महसूस करती है. अगर बीजेपी के शुरूआती दिनों की बात की जाए तो बीजेपी के राम मंदिर अभियान के बाद बीजेपी  सबसे ज्यादा फायदा हिंदी  बहुल राज्यों उत्तरप्रदेश बिहार,राजस्थान मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हुआ था. भाजपा का ध्यान भी शुरू से इन राज्यों पर ही रहा है.  


इस बार के चुनाव में  में बीजेपी अपने वर्त्तमान स्तर में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन कर पाए इसकी सम्भावना बहुत कम है. इसका कारण है बीजेपी की इन राज्यों में चुनाव पूर्व कोई तैयारी  का न होना है.

वैसे बीजेपी ने इस बार इन सभी राज्यों में काफी जोर लगाया है.अब देखना यह होगा की इस राज्यों की जनता बीजेपी को अपनाती है या पांच साल और रुकने का जनादेश देती है.

Tuesday, March 15, 2011

ब्लॉग से दूर होते जा रहे युवा

ब्लॉग को शुरू हुए 10 साल से ज्यादा हो चुके हैं.जब यह शुरू हुई थी तो उस वक़्त यह बिलकुल नई  चीज थी.

जाहिर सी बात है नई चीज के प्रति लोग जल्द आकर्षित होते हैं.इसलिए धीरे-धीरे लोगों में खासकर युवाओं  में ब्लॉगिंग के प्रति रूचि बढ़ी.

धीरे- धीरे इसलिए भी कि आज से कोई 10 साल पहले इन्टरनेट तक लोगों की पहुंच कम थी. पर जैसे -जैसे इन्टरनेट तक लोगों की पहुंच आसान होती गई  और इन्टरनेट उपयोग करने के  मूल्य में कमी आती गई ब्लॉगिंग युवाओं में गहरी  पैठ   बनाती  चली गई.


मैंने   इन्टरनेट पर अपना  अकाउंट 1996 में बना लिया था.उस वक़्त मैं सिर्फ मेल चेक करने और मेल करने के लिए ही इन्टरनेट का इस्तेमाल करता था.

इन्टरनेट पर जब मैंने पहली बार ब्लॉग शब्द देखा तो मुझे समझ में नहीं आया कि यह  किस बाला का नाम है.एक बात यह भी थी कि मैंने भी इस बारे में जानकारी लेने की  कोई  ख़ास कोशिश नही की.


इंटरनेट इस्तेमाल करने में लगने वाला पैसा भी मुझे इस बारे में और ज्यादा जानने के लिए रोकता था. उस वक्त इंटरनेट इस्तेमाल  करने का प्रति खंता शुल्क 10 से 15 रूपए था.


ब्लॉगिंग का युवाओं में  चलन बढ़ने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि पहली  बार युवाओं को अपनी बात ब्लॉग  के माध्यम से रखने और उसे अपने दोस्तों से  शेयर करने का मौका मिला.


मीडियम चुकी  इन्टरनेट का था लिहाजा ब्लॉगर्स को अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का मौका मिला. लिखने की आजादी  ने भी युवाओं को इस ओर जल्द ही आकर्षित  कर लिया. देखते ही  देखते इन्टरनेट पर  तरह- तरह के नामों वाली कई ब्लॉग्स  आ गए.

ब्लॉग के साथ एक  और ख़ास बात यह  रही कि जैसे- जैसे इंटरनेट की पहुंच लोगों तक आसान होती गई इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों खास कर युवाओं ने  ने  अपना- अपना ब्लॉग बना लिया.


पर  जैसा कि  हर नए माध्यम के साथ होता है, ब्लॉगिंग भी धीरे-धीरे अपना आकर्षण खोने लगा.  इसकी एक बड़ी वजह रही ब्लॉग को लगातार अद्यतन (उप टु डेट)  रखने की समस्या.

अगर आपके  ब्लॉग पर लोगों को नई चीज़े  पढने को नहीं मिलती   है तो लोग ऐसे  ब्लॉग पर नहीं आना पसंद करेंगें. अपने  ब्लॉग को लगातार उप टु डेट रखना कोई आसान काम भी नहीं है.

किसी विषय पर लिखने में समय लगता है.अगर आपने अच्छा लिखा है तो ही लोग आपका ब्लॉग पढ़ने को आकर्षित होंगें.

पर ज्यादातर ब्लॉग्स के साथ समस्या रही स्तरहीन सामग्री  की.लोगों ने ब्लॉग तो बना लिए पर ब्लॉग पर क्या लिखे  वे यह तय नहीं कर पाए .


बीच में तो ब्लॉग अपनी भड़ास निकालने का  माध्यम बन गया.लिहाजा सरकार को सख्त होना पड़ा और सरकार ने नोटिस  जारी करते हुए कहा कि किसी व्यक्ति विशेष का ब्लॉग अगर किसी की मानहानि करता है तो ऐसे ब्लॉग ओनर्स पर कानूनी कार्यवाई की जाएगी.


ब्लॉग लिखने वाले ऐसे कुछ लोगों पर क़ानूनी कार्यवाई भी हुई. ब्लॉग से युवाओं का दूर होने में यह भी एक बड़ा कारण रहा.


अब ब्लॉग  तो लोगों ने बना लिए पर उनका ब्लॉग लोग पढ़े इसके लिए  लोग  अपने-अपने ब्लॉग की  लिंक एकदूसरे को भेजने लगे.

अब इस युग में आदमी के पास जो एक चीज नहीं है वह है वक़्त. तो लोग बाग़ ब्लॉग तो लिखते रहे पर अपनी ब्लॉग दूसरों को पढ़वाने के चक्कर में दूसरे की ब्लॉग नहीं पढ़ा . दूसरा समय की कमी की वजह से लोग अपनी ब्लॉग भी उप टू डेट नहीं रख  पाते.


इस सब  के बीच सोशल नेट्वर्किंग  साइट्स जैसे ऑरकुट, फेसबुक और माइक्रो  ब्लॉगिंग साइट ट्विट्टर ने तेजी से लोगों के बीच अपनी जगह बैठा ली. इन साइट्स की लोगों के बीच  जल्द पैठ बैठाने की वजह रही  इनका  यूजर फ्रेंडली होना.


इन साइटों पर आप अपनी बात फ़ौरन किसी  से शेयर कर सकते है. जिसे आप पसंद करते हो उन्हें अपना दोस्त बना सकता है. अपनी बात एक समय में कई लोगों तक पहुंचा सकते है.अपनी तस्वीरें शेयर कर सकते है.

ब्लॉग में भी आप कई सारे दूसरे ब्लॉगर्स को जोड़ सकते है पर  इसके लिए सबसे पहले आपको अपने ब्लॉग पर लिखना होगा.साथ ही उनके ब्लॉग्स भी पढ़ने होंगें तभी वे भी आपकी ब्लॉग पढ़ने कि ज़ेहमत उठाएगें.

कविता हो कहानी हो  या किसी मुद्दे पर अपनी  बात रखना लिखना और स्तरीय लेखनी की समस्या ब्लॉगर्स को ब्लॉग की दुनिया से दूर लेती गई.

वही   ट्विटर  जिसपर आप  142  शब्दों से ज्यादा नहीं लिखा सकते है और फेसबुक पर कम से कम शब्दों में अपनी बात लाखों लोगों के साथ एक साथ शेयर कर सकते है.

ऐसा नहीं है कि आजकल के युवा  ब्लॉग नही लिख रहे है पर निश्चित तौर पर ब्लॉग लिखने वालों की संख्या में कमी आई है.

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए एक सर्वे में पाया गया कि 2006 से 2009 के बीच 12 से 17 साल के युवाओं में ब्लॉग लिखने का  चलन आधा हो गया.

अब इस उम्र वर्ग के केवल 14 फीसदी युवा ब्लॉगिंग करते हैं. 18 से 33 साल के युवाओं में भी पिछले साल ब्लॉगिंग के चलन में कमी देखी गई.

मेरे कई ऐसे मित्र है जो पहले तो ब्लॉग लिखते थे पर अब समय की कमी की वजह से इसे अपडेट नहीं कर पा रहे है.  हां ये जरुर है की अब वो अपना समय ट्विटर और  फेसबुक  पर ज्यादा दे रहे है.

आने वाले समय में  ब्लॉगिंग की दुनिया का भविष्य क्या होगा यह तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता पर इतना जरुर है ही अभी युवाओं पर पूरी तरह से ट्विटर और फेसबुक का प्रभाव है और यह कब तक रहेगा यह कहा नहीं जा सकता.


पर हर चीज का एक स्वर्णकाल होता है. ऑरकुट जब शुरू हुआ था तो इस ने भी जल्द  ही युवाओं के बीच अपनी पकड़ बना ली थी. पर फेसबुक और ट्विटर आ जाने से अब ऑरकुट की चमक फीकी पड़ गई है.


उम्मीद की जा सकती है कि फेसबुक और ट्विटर के दिन भी लद सकते हैं पर उस समय इनकी जगह लेने कोई नई चीज आ जाएगी.

Monday, February 7, 2011

कांग्रेस का पुराना फ़ॉर्मूला नए अंदाज में


फिल्म अभिनेता और प्रजा राज्यम पार्टी (पीआरपी)  के अध्यक्ष चिरंजीवी की पूरी पार्टी का  कांग्रेस पार्टी में विलय कुछ और नहीं दोनों  पार्टियों की अवसरवादिता ही है.पर राजनीति में इन बातों की छुट भी है.अगर राजनीतिक पार्टियां इस तरह की कवायद नहीं करेगी तो और क्या करेगी.

खैर,  पीआरपी का कांग्रेस में विलय फिलहाल दोनों की राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि एक तरफ  वाई एस जगन मोहन  रेड्डी  राज्य की कांग्रेस पार्टी की स्थिरता के लिए खतरा बने हुए है वही दूसरी तरह चिरंजीवी अपने 18 विधायकों  के साथ राज्य में प्रभावी भूमिका की तलाश  में है जो अबतक उन्हें नहीं मिल पा रही थी.


गौरतलब है कि आंध्र प्रदेश कि 294 सदस्यीय विधान मंडल में कांग्रेस के 155 विधायक है जिसमें से 25 विधायकों का जगन मोहन रेड्डी अपने पक्ष में होने का दावा कर रहे  हैं.


राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) के रहते  पीआरपी  को यह मालुम  है कि आने वाले सालों में भी उसके राज्य  की सत्ता तक पहुंच संभव नहीं है लिहाजा उसने कांग्रेस  के विलय में ही अपनी भलाई दिखी.

हाल हो  में  बीके श्रीकृष्ण आयोग ने तेलंगाना मसले पर जो अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी उसको लेकर भी कांग्रेस  पसोपेश में है.इस रिपोर्ट में आयोग ने मूलतः पांच सुझाव दिए हैं जिसे लेकर खुद पार्टी के अन्दर एक राय कायम नहीं हो पा रही है.

आंध्रप्रदेश कांग्रेस विधायक और सांसदों में एक मत नहीं है. तेलंगाना क्षेत्र के सांसद और विधयाक अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे हैं. उधर तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी ने अलग तेलंगाना राज्य से कम नहीं के रुख पर कयाम है.

ऐसे में कांग्रेस ने चिरंजीवी की पार्टी को मिलाकर वहां की सरकार की  स्थिरता का इंतज़ाम करती हुई  दिख रही है.कांग्रेस जब कभी भी इस तरह के राजनीतिक संकट में पड़ती है तो वहां  की विपक्षी पार्टी को मिला लेते है और बदले में पार्टी के मुखिया और अन्य  लोगों को महत्वपूर्ण पदों से नवाज देती है.

अलग झारखंड की मांग आजादी से पहले से उठती रही थी  पर उस वक़्त भी कांग्रेस ने तबके संयुक्त बिहार के  झारखंड आन्दोलन  के प्रणेता जयपाल सिंह को पार्टी में मिला लिया और अलग राज्य के आन्दोलन की गति  को कुंद कर दिया.

बाद में भी जब छत्तीसगढ़  और उत्तराखंड अलग हुआ तो कांग्रेस की कोशिश यही रही की ऐसा होने न पाए पर दोनों ही राज्यों में अपने आपको कमजोर पा कर वह नए राज्य के गठन के लिए तैयार हो गई.

कांग्रेस की अवधारणा छोटे राज्यों की नहीं रही है.साथ ही बड़े राज्यों का विकास कैसे हो इसका भी कोई फ़ॉर्मूला उनके पास नहीं होता है.

प्रजा राज्य पार्टी का कांग्रेस में विलय कांग्रेस की इसी नीति का परिचायक है.पीआरपी  वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी तो नहीं है पर जितने  विधायक  उसके पास है वह जगन समर्थित विधायकों के अलग होने पर सरकार को गिरने से बचा सकती है. जिस तरह के हालत आंध्र प्रदेश में है उसे देखते हुए नहीं लगता है कि कांग्रेस अलग तेलंगान राज्य की मांग को ज्यादा  दिनों तक रोक पाएगी.पीआरपी का कांग्रेस में विलय इसी बात को दर्शाता है.

पीआरपी का विलय भी बहुत ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं है.आज वह जिस तरह वह अभी  कांग्रेस में मिली  है उसी  तरह  अगर कल  वह वहां  की परिस्तिथियों को देखते हुए  कांग्रेस  पार्टी से अलग हो जाए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.

Sunday, January 16, 2011

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का सराहनीय फैसला

पिछले दिनों राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग  ने अपने एक फैसले में एक भिखारी को 50000 रूपए मुआवजा देने का आदेश दिया.

भिखारी का नाम शेल्टन मेसरवास है. जो पणजी गोवा का रहने वाला है.47 वर्षीय इस भिखारी को एक पुलिसकर्मी ने उठाकर कूड़ेदान  में फ़ेंक दिया था. अब आयोग ने इस पुलिसकर्मी के वेतन से यह रकम देने का आदेश दिया है.

हाल के मानवाधिकार आयोग के फैसलों में  से इस फैसले का ख़ास महत्त्व है क्योंकि आयोग का यह फैसला एक व्यक्ति के मानवाधिकार को बड़ी  ही सूक्ष्मता से परिभाषित करता है.

दरअसल भारत जैसे देश में जहां जान की कीमत समझी नहीं जाती है वही यह फैसला एक बेहद  उम्दा नजीर  है और यह लोगों को आईना  दिखाने का काम भी करेगा.

यह फैसला आने वालों दिनों में राज्य मानवाधिकार आयोगों को  भी इस तरह के फैसले लेने में प्रेरित करेगा. 

Saturday, October 16, 2010

डोपिंग के लिए जिम्मेदार कौन?

दिल्ली में  14 अक्टूबर को खत्म हुए 19वें राष्ट्रमंडल खेल भी  डोपिंग की काली छाया से दूर नहीं रह पाया । नाइजीरिया के ओसायोमी ओलुडामोला को मिथाइलहेक्सानिमाइन के सेवन के कारण 100 मीटर में जीता स्वर्ण पदक गंवाना पड़ा।

वहीँ नाइजीरिया के  बाधा धावक सैमुअल ओकोन को भी प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया गया। 

20 किमी महिला पैदल चाल की  भारतीय एथलीट रानी यादव  को नेंड्रोलोन के सेवन का दोषी पाया गया। यादव पैदल चाल में छठे स्थान पर रही थी लिहाजा उनसे पदक छिनने वाली कोई बात तो नहीं हुई, पर निश्चित तौर पर इस घटना से भारत को शर्मशार होना पड़ा। रानी को अभी अस्थायी तौर पर निलंबित किया गया है।

राष्ट्रमंडल खेलों के ख़त्म होने के अगले ही दिन यानी 15 अक्टूबर को नाइजीरिया की धावक फोलाशेड अबुगेन को प्रतिबंधित स्टेरायड के सेवन का दोषी पाए जाने पर महिलाओं की 400 मीटर और चार गुणा 400 मीटर रिले का रजत पदक गंवाना पड़ा।

इसके बाद अब तक दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में डोपिंग के दोषियों की तादाद चार हो गई है जिनमें से तीन नाइजीरियाई हैं।

राष्ट्रमंडल खेलों से पहले एशियाई  और 2002 मैनचेस्टर  राष्ट्रमंडल खेलों की चैम्पियन भारोत्तोलक  मणिपुर की सानामाचू  चानू  इस साल अगस्त में हुए परिक्षण में पोजिटिव  पाई गईं।  उन्हें प्रतिबंधित मिथाइलहेक्सानिमाइन के सेवन का दोषी पाया गया । यह पदार्थ फ़ूड सप्लीमेंट  में पाया जाता है। गौरतलब है कि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी(वाडा) ने इस पदार्थ को इसी साल प्रतिबंधित किया है ।

चानू इससे पहले भी 2004 एथेंस ओलम्पिक  के ठीक पहले  डयूरेटिक  के लिए पोजिटिव पाई गई थी,जिसके बाद उनपर दो साल का प्रतिबन्ध लग गया था। 

इस साल चानू के साथ 11 अन्य खिलाड़ी भी डोपिंग के दोषी पाए गए हैं.जिसमें पांच पहलवान,चार  एथलीट, दो तैराक और एक नैट बाल खिलाड़ी है।

 सवाल यह उठता है कि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा)  और राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी(नाडा) जैसी संस्थाओं के रहते हुए खिलाड़ी प्रतिबंधित दवाओं के सेवन से बाज क्यों नहीं आते हैं? क्या उन्हें मालुम नहीं होता कि पकड़े जाने के बाद उनपर प्रतिबन्ध लग सकता है और यदि वह खेलों के दौरान इस तरह की दवाओं  का सेवन करते हैं तो जीते हुए पदक  भी छीने जा सकते हैं, जैसा कि पूर्व में कई खिलाड़ियों के साथ हो चुका है ।

यहां यह बात भी दीगर है कि चानू और अन्य खिलाड़ी परिक्षण के ठीक पहले डोपिंग के दोषी पाए गए हैं । मतलब यह जानते हुए कि ट्रायल में डोपिंग परिक्षण होना तय है ये खिलाड़ी प्रतिबंधित दवा लेने का लोभ संवरण नहीं कर पाए।

सानामाचू चानू  ने  डोपिंग के पहले परिक्षण यानी 'ए' सैम्पल  में पोजिटिव पाए जाने पर कहा कि उन्हें नहीं मालूम  उनके शरीर में यह पदार्थ कहां से आया उन्होंने तो सिर्फ फ़ूड सप्लीमेंट लिया था ।  उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि यह प्रतिबंधित दवाओं में शामिल है या नहीं ।

 चानू के  कहने का मतलब है कि खिलाड़ी क्या खा - पी  रहे हैं, इस बारे में उनके कोच या डॉक्टर  जैसा कहते है वे  वैसा ही  करते हैं । पर आश्चर्य है कि जब कभी डोपिंग के मामले सामने आते है तो सिर्फ और सिर्फ खिलाड़ियों को ही दोषी माना  जाता है उनके कोच  डॉक्टर  और खेल के अन्य अधिकारियों को नहीं. जबकि खिलाड़ियों के खान पान से लेकर ट्रेनिंग तक सारी  जिम्मेदारी कोच,  डॉक्टर और उस खेल से सम्बंधित अधिकारियों की भी  होती है तो फिर ऐसे में अकेले खिलाड़ी  को ही निशाना  क्यों बनाया जता  है? यह तो संभव ही नहीं कि कोच,डॉक्टर  की जानकारी के बिना कोई  खिलाड़ी खुद से ऐसी प्रतिबंधित दवाओं का सेवन करे.और कोच डॉक्टर को इसकी भनक तक ना लगे ।

वाडा के 1999 में अस्तित्व में आने के बाद  डोपिंग  के दुष्प्रभाव और खेलो को डोप मुक्त बनाने को लेकर  वाडा  लगातार प्रयासरत है । कौन सी दवा  को प्रतिबंधित सूची में शामिल किया  गया है इसकी जानकारी  भी वह वाडा से जुड़े देशों को समय- समय पर मुहैया  कराता रहता है ।

मगर इन सब के बावजूद  इस साल अगस्त तक  राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा)  के  2047 एथलीटों से लिए  नमूनों  में से  103 एथलीट विभिन प्रतिबंधित पदार्थों के लिए  पोजिटिव  पाए गए. यह अच्छी  बात है कि ऐसे मामलों की संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है पर अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना  बाकी  है ।

पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या सिर्फ और सिर्फ खिलाड़ी ही डोपिंग के लिए जिम्मेदार है? देखा   जाए तो खिलाड़ियों के ट्रेनिंग  से ले कर उनके चयन  तक के कार्य  भारतीय खेल प्राधिकरण करता है, फिर डोपिंग में पकडे जाने के बाद सिर्फ खिलाड़ी ही  क्यों दोषी ठहराए जाते हैं.?क्या इसके लिए डॉक्टर, कोच और खेल अधिकारी बराबर के जिम्मेदार नहीं है?

वाडा के वर्त्तमान अध्यक्ष डेविड  हाउमैन का भी मानना  है कि  यदि डोपिंग  को कोच,डॉक्टर या खेल के अधिकारी बढ़ावा देते है तो उनपर भी कड़ी कार्रवाई की  जानी चाहिए । पर असल में  अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। होता यह है कि ऐसे मामले प्रकाश  में आने पर खिलाड़ी पर और अधिक से अधिक उस खेल संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। कोच, डॉक्टर और खेल अधिकारी आसानी से बच निकलते हैं।

 नाडा को  डोपिंग को जड़ से खत्म करने के लिए  सख्त कदम उठाने की जरुरत है। अगर कोई खिलाड़ी किसी प्रतिबंधित दवा के सेवन का दोषी पाया जाता है तो पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराई जानी चाहिए और  जो भी इस मामले  में दोषी पाया जाता है  उन सभी पर  कड़ी कार्रवाई,जिसमें आजीवान प्रतिबन्ध  भी शामिल हो, की जानी चाहिए ताकि कोई भी खिलाड़ी,कोच डॉक्टर या  खेल अधिकारी  डोपिंग को बढ़ावा  न देने पाए और भविष्य में खेलों में एक भी डोपिंग के मामले ना होने पाए ।

Monday, September 13, 2010

कब तक चलेगी मुंडा सरकार?

अर्जुन मुंडा के झारखण्ड के आठवें और खुद तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के साथ ही झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो गई. पर इसके साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या बीजेपी और झामुमो का गटबंधन लम्बा चल पाएगा?

पूर्व में देखें तो तीन माह पहले ही शिबू सोरेन की जो गटबंधन सरकार आराम से चल रही थी कि तभी आश्चर्यजनक तरीके से शिबू सोरेन ने अप्रैल में यूपीए सरकार को बचाने के लिए संसंद में हो रहे कटौती प्रस्ताव पर यूपीए के पक्ष में वोट डाल आए,जिससे स्वाभाविक तौर पर  बीजेपी नाराज हुई और गटबंधन सरकार से तुरंत समर्थन वापस लेने कि घोषणा कर डाली.

बाद में शिबू सोरे के बेटे हेमंत सोरेन ने गडकरी से मिल कर यह सफाई देने की कोशिश की कि उनके पिता ने गलती से यूपीए के पक्ष में वोट डाल दिए.इस सफाई से भाजपा संतुष्ट नहीं हुई. सही भी है जो व्यक्ति खुद कई बार सांसद रहा हो उससे इस तरह कि गलती होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

इसके बाद दोनों पार्टियों के बीच सरकार बचाने को लेकर कई दौर की बैठकें हुईं.इस दौरान हेमंत सोरेन ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा भी की पर उनके इस घोषणा से खुद उनके पार्टी के कई नेता सहमत नहीं हुए.

खुद शिबू सोरेन लगातार यह कहते नज़र आए की वे अब भी मुख्य मंत्री है और उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है.

पर करीब एक महीने तक चले राजनीतिक उठा पटक के बाद अंततः भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया . बीच में बीजेपी के हजारीबाग से सांसद और वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा के मुख्यमंत्री बनने की बात चली थी, पर बात बनी नहीं और एक जून को केंद्र सरकार ने राज्यपाल एम ओ एच फारुख के रिपोर्ट के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दी.

बीजेपी ने पहले समर्थन वापसी की घोषणा की और बाद में सरकार बनाने की लालच में अपने बयान से पलट गई.उससे पार्टी की खासी किरकिरी हुई. खुद पार्टी के अन्दर पार्टी के कुछ बड़े नेता वहां सरकार बनने के पक्ष में नहीं थे वहीँ राजनाथ सिंह और खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी सरकार बनाने के पक्ष में थे.

बाद में शिबू सोरेन के ढुलमुल रवये को देखते हुए बीजेपी पीछे हट गई.

अब सवाल उठता है कि पिछले तीन महीने में दोनों पार्टियों के बीच ऐसी कौन सी खिचड़ी पकी कि अचानक दोनों पार्टियों ने फिर से एक साथ सरकार बनने का फैसला कर लिया यदि साथ रहने ही था तो आखिर तीन महीने पहले अलग ही क्यों हुए थे ? इन सब सवालों का दोनों पार्टियों के पास जवाब नहीं है.

यह ठीक है कि राजनीति में सभी पार्टियों को जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने का हक़ है पर ये हक़ सिर्फ हक़ न हो बल्कि इस हक़ का वाजिब आधार हो.वर्त्तमान में यह गटबंधन वाजिब आधारों पर नहीं खड़ी है, बल्कि दोनों पार्टियों का मकसद सिर्फ और सिर्फ सत्ता में बने रहने का है.

दोनों पार्टियां स्वाभाविक जोड़ीदार भी नहीं है और दोनों के वैचारिक मतभेद जग जाहिर हैं. दोनों ने पिछले साल हुए चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे. झारखण्ड की जनता ने भी किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया था. ऐसे में दोनों पार्टियों का एक बार फी से साथ आना यही साबित करता है कि दोनों पार्टियां सिर्फ सत्ता की भूखी हैं वे ज्यादा दिनों तक सत्ता से दूर नहीं रह सकती हैं .

पर पिछले हफ्ते के दौरान वहां हुए ताजा राजनितिक घटनाक्रम से खुद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व हतप्रद है. भाजपा के संसदीय दल के नेता लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज सरकार बनाए जाने के विरोध में है. भाजपा के केंद्रीय संसदीय बोर्ड ने तीन महीने पहले फैसला लिया था की वो अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ अब किसी प्रकार का गटबंधन नहीं करेंगें.


दोनों नेताओं का अर्जुन मुंडा के शपथ ग्रहण समाहरोह में न जाना उनके इसी रुख का परिचायक है कि वे इससे खुश नहीं है. हालांकि पार्टी सूत्रों ने इसकी वजह आडवाणी के गणेश चतुर्थी की पूजा में शामिल को को बताया है. खबर यह है की आडवाणी यशवंत सिन्हा को मुख्य मंत्री बनाए जाने के पक्ष में थे.

पहले की ही तरह इस बार भी गडकरी और राजनाथ सिंह झाखंड में सरकार बनाने के पक्ष में दिखे और इस कदम को सही ठहराया .पर खुद गडकरी का मुंडा के शपथ समाहरोह में भाग न लेने से झारखण्ड में अटकलों का बाज़ार गर्म रहा और सभी अपने तरीके से इसका आकलन करने में जुटे रहे.

लाख टके का सवाल यह है की क्या दोनों पार्टियां इस गटबंधन को बाकी बचे हुए चार साल तक चला लेंगीं? ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि शिबू सोरेन के बार-बार पाला बदलने के इतिहास को देखें तो इस बात कि सम्भावना कम ही दिखाई देती है.

हां वहां की जनता में जरुर यह उम्मीद जागी है कि उन्हें आने वाले समय में एक स्थिर सरकार मिलेगी.और नई सरकार राज्य का विकास करेगी.

पर शायद ही ऐसा हो पाए क्योंकि झारखण्ड को बने 10 साल हो चुके हैं और इस दौरान आठ मुख्य मंत्री बन चुके हैं. अबतक कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है.

अंदरखाने कि खबर तो यह है कि दोनों पार्टियों ने सत्ता में बने रहने के स्वाभाविक लाभ को देखते हुए एक बार फिर से हाथ मिलाने का मन बनाया है पर जहां मनभेद हो वहां शायद ही कोई समझौता ज्यादा दिन तक टिक पाए.