Monday, September 13, 2010

कब तक चलेगी मुंडा सरकार?

अर्जुन मुंडा के झारखण्ड के आठवें और खुद तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के साथ ही झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो गई. पर इसके साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या बीजेपी और झामुमो का गटबंधन लम्बा चल पाएगा?

पूर्व में देखें तो तीन माह पहले ही शिबू सोरेन की जो गटबंधन सरकार आराम से चल रही थी कि तभी आश्चर्यजनक तरीके से शिबू सोरेन ने अप्रैल में यूपीए सरकार को बचाने के लिए संसंद में हो रहे कटौती प्रस्ताव पर यूपीए के पक्ष में वोट डाल आए,जिससे स्वाभाविक तौर पर  बीजेपी नाराज हुई और गटबंधन सरकार से तुरंत समर्थन वापस लेने कि घोषणा कर डाली.

बाद में शिबू सोरे के बेटे हेमंत सोरेन ने गडकरी से मिल कर यह सफाई देने की कोशिश की कि उनके पिता ने गलती से यूपीए के पक्ष में वोट डाल दिए.इस सफाई से भाजपा संतुष्ट नहीं हुई. सही भी है जो व्यक्ति खुद कई बार सांसद रहा हो उससे इस तरह कि गलती होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

इसके बाद दोनों पार्टियों के बीच सरकार बचाने को लेकर कई दौर की बैठकें हुईं.इस दौरान हेमंत सोरेन ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा भी की पर उनके इस घोषणा से खुद उनके पार्टी के कई नेता सहमत नहीं हुए.

खुद शिबू सोरेन लगातार यह कहते नज़र आए की वे अब भी मुख्य मंत्री है और उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है.

पर करीब एक महीने तक चले राजनीतिक उठा पटक के बाद अंततः भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया . बीच में बीजेपी के हजारीबाग से सांसद और वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा के मुख्यमंत्री बनने की बात चली थी, पर बात बनी नहीं और एक जून को केंद्र सरकार ने राज्यपाल एम ओ एच फारुख के रिपोर्ट के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दी.

बीजेपी ने पहले समर्थन वापसी की घोषणा की और बाद में सरकार बनाने की लालच में अपने बयान से पलट गई.उससे पार्टी की खासी किरकिरी हुई. खुद पार्टी के अन्दर पार्टी के कुछ बड़े नेता वहां सरकार बनने के पक्ष में नहीं थे वहीँ राजनाथ सिंह और खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी सरकार बनाने के पक्ष में थे.

बाद में शिबू सोरेन के ढुलमुल रवये को देखते हुए बीजेपी पीछे हट गई.

अब सवाल उठता है कि पिछले तीन महीने में दोनों पार्टियों के बीच ऐसी कौन सी खिचड़ी पकी कि अचानक दोनों पार्टियों ने फिर से एक साथ सरकार बनने का फैसला कर लिया यदि साथ रहने ही था तो आखिर तीन महीने पहले अलग ही क्यों हुए थे ? इन सब सवालों का दोनों पार्टियों के पास जवाब नहीं है.

यह ठीक है कि राजनीति में सभी पार्टियों को जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने का हक़ है पर ये हक़ सिर्फ हक़ न हो बल्कि इस हक़ का वाजिब आधार हो.वर्त्तमान में यह गटबंधन वाजिब आधारों पर नहीं खड़ी है, बल्कि दोनों पार्टियों का मकसद सिर्फ और सिर्फ सत्ता में बने रहने का है.

दोनों पार्टियां स्वाभाविक जोड़ीदार भी नहीं है और दोनों के वैचारिक मतभेद जग जाहिर हैं. दोनों ने पिछले साल हुए चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे. झारखण्ड की जनता ने भी किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया था. ऐसे में दोनों पार्टियों का एक बार फी से साथ आना यही साबित करता है कि दोनों पार्टियां सिर्फ सत्ता की भूखी हैं वे ज्यादा दिनों तक सत्ता से दूर नहीं रह सकती हैं .

पर पिछले हफ्ते के दौरान वहां हुए ताजा राजनितिक घटनाक्रम से खुद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व हतप्रद है. भाजपा के संसदीय दल के नेता लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज सरकार बनाए जाने के विरोध में है. भाजपा के केंद्रीय संसदीय बोर्ड ने तीन महीने पहले फैसला लिया था की वो अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ अब किसी प्रकार का गटबंधन नहीं करेंगें.


दोनों नेताओं का अर्जुन मुंडा के शपथ ग्रहण समाहरोह में न जाना उनके इसी रुख का परिचायक है कि वे इससे खुश नहीं है. हालांकि पार्टी सूत्रों ने इसकी वजह आडवाणी के गणेश चतुर्थी की पूजा में शामिल को को बताया है. खबर यह है की आडवाणी यशवंत सिन्हा को मुख्य मंत्री बनाए जाने के पक्ष में थे.

पहले की ही तरह इस बार भी गडकरी और राजनाथ सिंह झाखंड में सरकार बनाने के पक्ष में दिखे और इस कदम को सही ठहराया .पर खुद गडकरी का मुंडा के शपथ समाहरोह में भाग न लेने से झारखण्ड में अटकलों का बाज़ार गर्म रहा और सभी अपने तरीके से इसका आकलन करने में जुटे रहे.

लाख टके का सवाल यह है की क्या दोनों पार्टियां इस गटबंधन को बाकी बचे हुए चार साल तक चला लेंगीं? ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि शिबू सोरेन के बार-बार पाला बदलने के इतिहास को देखें तो इस बात कि सम्भावना कम ही दिखाई देती है.

हां वहां की जनता में जरुर यह उम्मीद जागी है कि उन्हें आने वाले समय में एक स्थिर सरकार मिलेगी.और नई सरकार राज्य का विकास करेगी.

पर शायद ही ऐसा हो पाए क्योंकि झारखण्ड को बने 10 साल हो चुके हैं और इस दौरान आठ मुख्य मंत्री बन चुके हैं. अबतक कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है.

अंदरखाने कि खबर तो यह है कि दोनों पार्टियों ने सत्ता में बने रहने के स्वाभाविक लाभ को देखते हुए एक बार फिर से हाथ मिलाने का मन बनाया है पर जहां मनभेद हो वहां शायद ही कोई समझौता ज्यादा दिन तक टिक पाए.