फिल्म अभिनेता और प्रजा राज्यम पार्टी (पीआरपी) के अध्यक्ष चिरंजीवी की पूरी पार्टी का कांग्रेस पार्टी में विलय कुछ और नहीं दोनों पार्टियों की अवसरवादिता ही है.पर राजनीति में इन बातों की छुट भी है.अगर राजनीतिक पार्टियां इस तरह की कवायद नहीं करेगी तो और क्या करेगी.
खैर, पीआरपी का कांग्रेस में विलय फिलहाल दोनों की राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि एक तरफ वाई एस जगन मोहन रेड्डी राज्य की कांग्रेस पार्टी की स्थिरता के लिए खतरा बने हुए है वही दूसरी तरह चिरंजीवी अपने 18 विधायकों के साथ राज्य में प्रभावी भूमिका की तलाश में है जो अबतक उन्हें नहीं मिल पा रही थी.
गौरतलब है कि आंध्र प्रदेश कि 294 सदस्यीय विधान मंडल में कांग्रेस के 155 विधायक है जिसमें से 25 विधायकों का जगन मोहन रेड्डी अपने पक्ष में होने का दावा कर रहे हैं.
राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) के रहते पीआरपी को यह मालुम है कि आने वाले सालों में भी उसके राज्य की सत्ता तक पहुंच संभव नहीं है लिहाजा उसने कांग्रेस के विलय में ही अपनी भलाई दिखी.
गौरतलब है कि आंध्र प्रदेश कि 294 सदस्यीय विधान मंडल में कांग्रेस के 155 विधायक है जिसमें से 25 विधायकों का जगन मोहन रेड्डी अपने पक्ष में होने का दावा कर रहे हैं.
राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) के रहते पीआरपी को यह मालुम है कि आने वाले सालों में भी उसके राज्य की सत्ता तक पहुंच संभव नहीं है लिहाजा उसने कांग्रेस के विलय में ही अपनी भलाई दिखी.
हाल हो में बीके श्रीकृष्ण आयोग ने तेलंगाना मसले पर जो अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी उसको लेकर भी कांग्रेस पसोपेश में है.इस रिपोर्ट में आयोग ने मूलतः पांच सुझाव दिए हैं जिसे लेकर खुद पार्टी के अन्दर एक राय कायम नहीं हो पा रही है.
आंध्रप्रदेश कांग्रेस विधायक और सांसदों में एक मत नहीं है. तेलंगाना क्षेत्र के सांसद और विधयाक अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे हैं. उधर तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी ने अलग तेलंगाना राज्य से कम नहीं के रुख पर कयाम है.
ऐसे में कांग्रेस ने चिरंजीवी की पार्टी को मिलाकर वहां की सरकार की स्थिरता का इंतज़ाम करती हुई दिख रही है.कांग्रेस जब कभी भी इस तरह के राजनीतिक संकट में पड़ती है तो वहां की विपक्षी पार्टी को मिला लेते है और बदले में पार्टी के मुखिया और अन्य लोगों को महत्वपूर्ण पदों से नवाज देती है.
अलग झारखंड की मांग आजादी से पहले से उठती रही थी पर उस वक़्त भी कांग्रेस ने तबके संयुक्त बिहार के झारखंड आन्दोलन के प्रणेता जयपाल सिंह को पार्टी में मिला लिया और अलग राज्य के आन्दोलन की गति को कुंद कर दिया.
बाद में भी जब छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड अलग हुआ तो कांग्रेस की कोशिश यही रही की ऐसा होने न पाए पर दोनों ही राज्यों में अपने आपको कमजोर पा कर वह नए राज्य के गठन के लिए तैयार हो गई.
कांग्रेस की अवधारणा छोटे राज्यों की नहीं रही है.साथ ही बड़े राज्यों का विकास कैसे हो इसका भी कोई फ़ॉर्मूला उनके पास नहीं होता है.
प्रजा राज्य पार्टी का कांग्रेस में विलय कांग्रेस की इसी नीति का परिचायक है.पीआरपी वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी तो नहीं है पर जितने विधायक उसके पास है वह जगन समर्थित विधायकों के अलग होने पर सरकार को गिरने से बचा सकती है. जिस तरह के हालत आंध्र प्रदेश में है उसे देखते हुए नहीं लगता है कि कांग्रेस अलग तेलंगान राज्य की मांग को ज्यादा दिनों तक रोक पाएगी.पीआरपी का कांग्रेस में विलय इसी बात को दर्शाता है.
पीआरपी का विलय भी बहुत ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं है.आज वह जिस तरह वह अभी कांग्रेस में मिली है उसी तरह अगर कल वह वहां की परिस्तिथियों को देखते हुए कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.