Thursday, June 23, 2011

रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति की प्रासंगिता


रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने अपनी मौद्रिक नीति की  मध्य तिमाही समीक्षा में एक बार फिर  नीतिगत दरों में  इजाफा किया है. रेपो रेट में चौथाई फीसद की बढ़ोतरी की है तो रिवर्स रेपो रेट में भी इतने ही फीसद का इजाफा किया है..इसे मिला कर  पिछले  साल मार्च 2010 से लेकर अब तक रिजर्व बैंक 10 बार अपनी ब्याज दरों में वृद्धि  कर चुका है. इस वृद्धि के साथ रेपो रेट अब 7.50 फीसद हो गया है और रिवर्स रेपो रेट 6.5 फीसद हो गया है.रिजर्व बैंक ने बाकी दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं की है.


यह पहले से तय था की रिजर्व बैंक अपनी ब्याज दरों में चौथाई फीसद का इजाफा कर सकता है बाजार विशेषज्ञ भी इतने ही फीसद बढ़ोतरी का अनुमान लगा रहे थे. सो यह बाजार के अनुमान के अनुसार ही रहा.  इस बढ़ोतरी के साथ ही  आवास लोन और ऑटो और अन्य लोन मंहगे हो
 जाएंगे.


वाणिज्यिक बैंकों का भी मानना है की इससे उत्पादन लागत बढ़ेगी और बैंक ग्राहकों को कम ऋण उपलब्ध करा पाएगी. और देर सबेर बैंक भी अपनी  ब्याज दरें बढ़ाने को मजबूर हो जाएंगे.  अर्थशास्त्री और बाज़ार विशेषज्ञ इस वृद्धि से खुश नहीं है, उनका मानना  है कि इससे औधोगोक विकास की दर धीमी होगी .हालांकि रिजर्व बैंक ऐसा नहीं मानता है, बैंक का मानना है कि बेलगाम होती महंगाई  दर को  और बढ़ने से रोकने के लिए नीतिगत दरों में वृद्धि ही एकमात्र रह्स्ता रह गया था.


गौरतलब है कि इस हफ्ते खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर में मामूली कमी दर्ज  की गई है पिछले हफ्ते  यह 9.01 फीसद  पर थी  और अब यह 8 .96  फीसद पर पहुच गई है. वहीँ सकल थोक  मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर मई महीने में 9.06 के स्तर पर   पहुंच गई  है.


सवाल यह है कि रिजर्व बैंक के लगातार महंगाई दर को नियंत्रित करने की सारी कवायद क्यों नहीं काम कर पा रही है दूसरा क्या रिजर्व बैंक के पास महंगाई दर को काबू में रखने के लिए सिर्फ  नीतिगत दरों में इजाफा या घटाने के सिवा और कोई  उपाय नहीं रह गया है ? जबकि रिजर्व बैंक ने पिछले महीने  3 मई को  सालाना मौद्रिक नीति की  घोषणा करते हुए कहा था कि सिर्फ नीतिगत दरों में कमी या बढ़ोतरी करने से महंगाई दर को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. महंगाई को नियंत्रित करने के लिए सरकार को कुछ और उपाय करने होंगें


फिर बार- बार रिजर्व बैंक इसी नीति को अपनाने को क्यों मजबूर हो जाता है ? यह  भी एक सच्चाई है कि पिछले एक साल से रिजर्व बैंक की मुद्रास्फीति   दर को काबू करने की  कोशिश ना काफी साबित हुई है और यह अब भी चिंताजनक स्तर पर बनी हुई है.  रिजर्वे बैंक चाहता है की महंगाई की दर 5 से 6 फीसदी तक रहे. पर ऐसा निकट भविष्य हो होता नज़र नहीं आता है. कारण सरकार फिर ईंधन के मूल्यों में वृद्धि करने का मन बना चुकी है. 


अगर ऐसा होता है तो महंगाई का एक  बार फिर बढ़ना तय है और इसका असर लंबे समय  तक रहेगा.


दरअसल अब रिजर्व बैंक की मुद्रास्फीति की दर को काबू में रखने के लिए सिर्फ मौद्रिक नीति को बढ़ाने या घटाने से काम नहीं  चलेगा अगर सरकार को मुद्रास्फीति की लगाम कसके रखनी है तो दोनों को मिल कर इस दिशा में काम करना होगा.


महंगाई बढ़ने के कारण स्थानीय होते है. महंगाई  दर को बढ़ाने में सबसे अधिक भूमिका खाद्य पदार्थ निभाते हैं. भारतीय अपनी आय का एक बहुत बड़ा भाग खाने पीने पर खर्च करते है.हम बहर्तियों के लिए भी महगाई का मतलब खाद्य पदार्थों में वृद्धि से ही होता है.


एक तरफ तो   खाद्य पदार्थों की मांग और आपूर्ति में बहुत बड़ा असंतुलन है तो दूसरी तरफ सरकार ईंधन के दामों में पिछले एक साल से लगातार वृद्धि करती जा रही है  जिसके कारण भी महंगाई दर लगातार उंची बनी हुई है सरकार के इंधन के दामों में वृद्धि करते ही दूसरे सभी खाद्य और अखाद्य पदार्थों में स्वतः वृद्धि हो जाती है.यहीं पर सरकार को अपनी प्रभावी  भूमिका निभाने की जरुरत होती है.पर सरकार इस स्तर पर कुछ ख़ास नहीं कर पाती है लिहाजा दाम बढ़ाने में स्थानीय कारक जैसे माल भाड़े में वृद्धि, वस्तुओं की कालाबाजारी इत्यादि  हावी हो जाते है और फिर जब रिजर्व बैंक की महंगाई की दर को नियंत्रित करने के लिए उठाई  गई सारी कवायद बेकार साबित  होती है. और
 महीने डेढ़ महीने बाद रिजर्व बैंक को एक बार फिर से अपनी ब्याज दरें बढानी पड़ती है


कम से कम पिछले एक साल से तो यही देखने में आ रहा है.


महंगाई दर को उचित  स्तर पर बनाए रखने के लिए यह जरुरी है कि   सराकार और रिजर्वे बैंक मिलकर काम करें. एक बार ब्याज दर बढ़ने  पर यह सरकार की जिम्मेदारी है की वह बाज़ार पर नज़र रखे कि  इस वृद्धि का कोई बेजा फायदा तो नहीं उठा रहा है. पर वर्त्तमान में ऐसा लगता है कि  सरकार के पास इसे चेक करने की कोई विधि नहीं है. लिहाजा  सरकार भी बाजारी ताकतों के आगे नतमस्तक हो जाती है और मुद्रास्फीति की दर लगातार उंची बनी रहती है. 


अब वक्त आ गया है कि रिजर्व बैंक और सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति के अलावा कोई और विकल्प तलाशे तभी आम लोगों को बध्तियो महंगाई दर से छुटकार मिल सकता है.

Sunday, June 5, 2011

जबेरा उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा के लिए सेमी फायनल

25 जून को दमोह जिले के जबेरा सीट पर होने वाले उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए साल 2013  में होने वाले  विधान सभा आम चुनाव के पहले सेमी फायनल की तरह है.जो इस सीट पर जीत दर्ज करेगा वह अपने आप को 2013 में होने वाले चुनाव के लिए स्वाभाविक हकदार की तरह अपने आप को प्रचारित करेगा. हालांकि यह 2013 में ही तय हो पाएगा  कि हवा किस के पक्ष में है.
 

जबेरा सीट कांग्रेस विधयाक रत्त्नेश सालोमन के निधन होने से खाली हुई है. रत्त्नेश सालोमन की  छवि अपने क्षेत्र में एक  लोकप्रिय नेता के रूप में रही है. सालोमन दमोह जिले की राजनीति में लगभग ढाई दशक से सक्रिय थे। वे पहली बार अर्जुन सिंह सरकार के समय संसदीय सचिव बने। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस के शासनकाल में वन और शिक्षा मंत्री का पद भी संभाला।
 

कांग्रेस ने इस सीट से सालोमन की  बेटी और दन्त चिकित्सक तान्या  सालोमन को  अपना उम्मीदवार बनाया है. इसकी एक मात्र वजह सालोमन की मृत्यु से  उपजी सहानुभूति वोटों को पाना है. हालांकि  क्षेत्र की जनता भी तान्या को ही अपना उम्मीदवार देखना चाहती है. उधर भाजपा ने  पूर्व विधायक दशरथ सिंह को टिकट दिया है
 

बीजेपी ने तो जबेरा और एक और अन्य सीट महेश्वर पर  अपनी तैयारी  काफी पहले शुरू कर दी थी. वही कोन्रेस ने इस सीट पर अपनी तैयारी हाल ही में कांतिलाल भूरिया के मध्यप्रदेश  कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन होने के बाद शुरू की. 
 

कांति  लाल भूरिया  के लिए भी यह सीट प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई  है क्योंकि उनके नेतृत्व में कांग्रेस पहली बार चुनाव लड़ने जा रही है. हार-जीत्त उनका राजनितिक भविष्य तय करेगी. 


हाल ही में मंडीदीप नगर पालिका अध्यक्ष पद के चुनाव के साथ ही निगम के 18 वार्डों पर चुनाव संपन्न हुए है. इस चुनाव में भाजपा ने तो नगर पालिका अध्यक्ष चुनाव मात्र 131 मतों से जीता . यह सीट पहले कांग्रेस के पास थी.
 

18 वार्डों पर हुए चुनाव में से 9 सीटें कांग्रेस और 9  सीटें भाजपा  के झोली में गई. 


वैसे यह चुनाव नगर पालिका परिषद् के लिए हुआ था पर दोनों पार्टियों ने इसे जीतने के लिए  कोई कसर नहीं छोड़ी थी. कांग्रेस के मध्य प्रदेश के लगभग सभी दिग्गज नेताओं ने चुनाव प्रचार किए.
 
 
पूर्व  मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी ने भी चुनाव प्रचार किया. मंडीदीप  पचौरी के प्रभाव क्षेत्र का मना जाता है भूरिया ने भी इसे समझते हुए उम्मीदवारों के सलेक्शन में उन्हें खासी तवज्जो दी. कांग्रेस ने फिल्म कलाकार असरानी को भी चुनाव प्रचार में  उतारा.


भाजपा के तरफ से भी प्रदेश के तमाम बड़े नेताओं से लेकर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज  तक ने चुनाव प्रचार किया.  प्रचार के अंतिम दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह खुली जीप में  पार्टी उम्मीदवार सविता जैन के साथ प्रचार किया और  मतदाताओं से अपील की कि  भाजपा को जीताएं वे खुद इस क्षेत्र में विकास सुनिश्चित करेंगें. 


यहां मंडीदीप चुनाव का उल्लेख इसलिए जरुरी  था क्योंकि इस चुनाव को  दोनों पार्टियों ने काफी गंभीरता से लिए.ऐसा लगा जैसे यह नगर पालिका परिषद्  का चुनाव न हो कर विधान सभा या लोक सभा का चुनाव हो.
 

कांग्रेस फरवरी में हुए कुक्षी और सोनकच्छ सीट पर हुए उपचुनाव हार चुकी है.दोनों ही सीटें कांग्रेस की  परंपरागत सीटें रही है. लिहाजा कांग्रेस इस बार काफी सतर्क  है और वह किसी भी कीमत पर  इस सीट आर अपनी जीत दर्ज करना चाहती है .
 
 
भाजपा ने तो इस सीट पर अपन तैयारी पहले ही शुरू कर दी थी. जैसे ही चुनाव आयोग ने जबेरा सीट पर चुनाव की घोषणा की भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने अपने सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए.अब वे  एक जून से 23 तारीख  तक  दमोह में ही रहेंगें और चुनाव की सभी तैयारियों को देखेंगें.
 
 
परन्तु इस बार जबेरा सीट पर कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है,इसका कारण  कांग्रेस का लोगों में  पुनः विश्वास का जाग उठा है  ऐसा नहीं है ,वजह है रत्त्नेश सालोमन की क्षेत्र में किए गए कार्यों की वजह से लोकप्रियता  हासिल करना. क्षेत्र की जनता ने भी एक स्वर से   तान्या को उम्मीदवार बनाए जाने की सिफारिश की.
 
 
भाजपा वैसे तो इस सीट पर अपना पूरा दमखम लगा रही है.इस सीट को जीतने के लिए वह काफी पहले से तैयारी भी कर रही है.  पर शायद इस बार जनता कांग्रेस को जीत का उपहार दे दे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.

Tuesday, May 10, 2011

23 करोड़ की आबादी में कहां है भाजपा?

चार  राज्यों असम, पश्चिम  बंगाल,तमिलनाडु और केरल और एक केंद्र शासित  प्रदेश पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं.
चुनाव परिणाम 13 मई   को घोषित किए जाएंगें.

असम में कांग्रेस 2001 से सत्ता  में हैं तो केरल में वाम लोकतान्त्रिक मोर्चा 2006 से सत्ता में है. तमिलनाडु में द्रमुक और कांग्रेस की गटबंधन  सरकार 2006 से शासन में है. वही पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकार है.

इन सभी राज्यों में अपने को राष्ट्रीय  पार्टी कहने वाली भाजपा कहीं भी नहीं है. केरल तमिलनाडु और पुडुचेरी में तो भाजपा का एक भी विधायक नहीं है.असम में पार्टी के 126 सदस्यीय विधानमंडल में मात्र 10 विधायक हैं.

अगर जनसंख्या की बात की जाए तो इन राज्यों की  जनसंख्या करीब 23 करोड़ है. इतनी बड़ी आबादी के बीच भाजपा की पहुंच न के बराबर है.

वोट  शेयर की बात की जाए तो पुडुचेरी में बीजेपी  का वोट शेयर महज 3.35 प्रतिशत है.असम में 10.88 फीसदी,केरल में 4.83 फीसदी,तमिलनाडु में 2.02 फीसदी और बंगाल में 1.93 फीसदी.


बीजेपी को अस्तित्व में आए 31 साल होने को है.लेकिन फिर  भी वो अब तक इन दक्षिण राज्यों में अपनी उपस्थति दर्ज नहीं करा पाई है.

बीजेपी का शुरू से मुख्य ध्यान हिंदी भाषी राज्यों में रहा है. जहां वह अपने हिंदुत्व एजेंडे के साथ ज्यादा सहज महसूस करती है. अगर बीजेपी के शुरूआती दिनों की बात की जाए तो बीजेपी के राम मंदिर अभियान के बाद बीजेपी  सबसे ज्यादा फायदा हिंदी  बहुल राज्यों उत्तरप्रदेश बिहार,राजस्थान मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हुआ था. भाजपा का ध्यान भी शुरू से इन राज्यों पर ही रहा है.  


इस बार के चुनाव में  में बीजेपी अपने वर्त्तमान स्तर में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन कर पाए इसकी सम्भावना बहुत कम है. इसका कारण है बीजेपी की इन राज्यों में चुनाव पूर्व कोई तैयारी  का न होना है.

वैसे बीजेपी ने इस बार इन सभी राज्यों में काफी जोर लगाया है.अब देखना यह होगा की इस राज्यों की जनता बीजेपी को अपनाती है या पांच साल और रुकने का जनादेश देती है.

Tuesday, March 15, 2011

ब्लॉग से दूर होते जा रहे युवा

ब्लॉग को शुरू हुए 10 साल से ज्यादा हो चुके हैं.जब यह शुरू हुई थी तो उस वक़्त यह बिलकुल नई  चीज थी.

जाहिर सी बात है नई चीज के प्रति लोग जल्द आकर्षित होते हैं.इसलिए धीरे-धीरे लोगों में खासकर युवाओं  में ब्लॉगिंग के प्रति रूचि बढ़ी.

धीरे- धीरे इसलिए भी कि आज से कोई 10 साल पहले इन्टरनेट तक लोगों की पहुंच कम थी. पर जैसे -जैसे इन्टरनेट तक लोगों की पहुंच आसान होती गई  और इन्टरनेट उपयोग करने के  मूल्य में कमी आती गई ब्लॉगिंग युवाओं में गहरी  पैठ   बनाती  चली गई.


मैंने   इन्टरनेट पर अपना  अकाउंट 1996 में बना लिया था.उस वक़्त मैं सिर्फ मेल चेक करने और मेल करने के लिए ही इन्टरनेट का इस्तेमाल करता था.

इन्टरनेट पर जब मैंने पहली बार ब्लॉग शब्द देखा तो मुझे समझ में नहीं आया कि यह  किस बाला का नाम है.एक बात यह भी थी कि मैंने भी इस बारे में जानकारी लेने की  कोई  ख़ास कोशिश नही की.


इंटरनेट इस्तेमाल करने में लगने वाला पैसा भी मुझे इस बारे में और ज्यादा जानने के लिए रोकता था. उस वक्त इंटरनेट इस्तेमाल  करने का प्रति खंता शुल्क 10 से 15 रूपए था.


ब्लॉगिंग का युवाओं में  चलन बढ़ने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि पहली  बार युवाओं को अपनी बात ब्लॉग  के माध्यम से रखने और उसे अपने दोस्तों से  शेयर करने का मौका मिला.


मीडियम चुकी  इन्टरनेट का था लिहाजा ब्लॉगर्स को अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का मौका मिला. लिखने की आजादी  ने भी युवाओं को इस ओर जल्द ही आकर्षित  कर लिया. देखते ही  देखते इन्टरनेट पर  तरह- तरह के नामों वाली कई ब्लॉग्स  आ गए.

ब्लॉग के साथ एक  और ख़ास बात यह  रही कि जैसे- जैसे इंटरनेट की पहुंच लोगों तक आसान होती गई इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों खास कर युवाओं ने  ने  अपना- अपना ब्लॉग बना लिया.


पर  जैसा कि  हर नए माध्यम के साथ होता है, ब्लॉगिंग भी धीरे-धीरे अपना आकर्षण खोने लगा.  इसकी एक बड़ी वजह रही ब्लॉग को लगातार अद्यतन (उप टु डेट)  रखने की समस्या.

अगर आपके  ब्लॉग पर लोगों को नई चीज़े  पढने को नहीं मिलती   है तो लोग ऐसे  ब्लॉग पर नहीं आना पसंद करेंगें. अपने  ब्लॉग को लगातार उप टु डेट रखना कोई आसान काम भी नहीं है.

किसी विषय पर लिखने में समय लगता है.अगर आपने अच्छा लिखा है तो ही लोग आपका ब्लॉग पढ़ने को आकर्षित होंगें.

पर ज्यादातर ब्लॉग्स के साथ समस्या रही स्तरहीन सामग्री  की.लोगों ने ब्लॉग तो बना लिए पर ब्लॉग पर क्या लिखे  वे यह तय नहीं कर पाए .


बीच में तो ब्लॉग अपनी भड़ास निकालने का  माध्यम बन गया.लिहाजा सरकार को सख्त होना पड़ा और सरकार ने नोटिस  जारी करते हुए कहा कि किसी व्यक्ति विशेष का ब्लॉग अगर किसी की मानहानि करता है तो ऐसे ब्लॉग ओनर्स पर कानूनी कार्यवाई की जाएगी.


ब्लॉग लिखने वाले ऐसे कुछ लोगों पर क़ानूनी कार्यवाई भी हुई. ब्लॉग से युवाओं का दूर होने में यह भी एक बड़ा कारण रहा.


अब ब्लॉग  तो लोगों ने बना लिए पर उनका ब्लॉग लोग पढ़े इसके लिए  लोग  अपने-अपने ब्लॉग की  लिंक एकदूसरे को भेजने लगे.

अब इस युग में आदमी के पास जो एक चीज नहीं है वह है वक़्त. तो लोग बाग़ ब्लॉग तो लिखते रहे पर अपनी ब्लॉग दूसरों को पढ़वाने के चक्कर में दूसरे की ब्लॉग नहीं पढ़ा . दूसरा समय की कमी की वजह से लोग अपनी ब्लॉग भी उप टू डेट नहीं रख  पाते.


इस सब  के बीच सोशल नेट्वर्किंग  साइट्स जैसे ऑरकुट, फेसबुक और माइक्रो  ब्लॉगिंग साइट ट्विट्टर ने तेजी से लोगों के बीच अपनी जगह बैठा ली. इन साइट्स की लोगों के बीच  जल्द पैठ बैठाने की वजह रही  इनका  यूजर फ्रेंडली होना.


इन साइटों पर आप अपनी बात फ़ौरन किसी  से शेयर कर सकते है. जिसे आप पसंद करते हो उन्हें अपना दोस्त बना सकता है. अपनी बात एक समय में कई लोगों तक पहुंचा सकते है.अपनी तस्वीरें शेयर कर सकते है.

ब्लॉग में भी आप कई सारे दूसरे ब्लॉगर्स को जोड़ सकते है पर  इसके लिए सबसे पहले आपको अपने ब्लॉग पर लिखना होगा.साथ ही उनके ब्लॉग्स भी पढ़ने होंगें तभी वे भी आपकी ब्लॉग पढ़ने कि ज़ेहमत उठाएगें.

कविता हो कहानी हो  या किसी मुद्दे पर अपनी  बात रखना लिखना और स्तरीय लेखनी की समस्या ब्लॉगर्स को ब्लॉग की दुनिया से दूर लेती गई.

वही   ट्विटर  जिसपर आप  142  शब्दों से ज्यादा नहीं लिखा सकते है और फेसबुक पर कम से कम शब्दों में अपनी बात लाखों लोगों के साथ एक साथ शेयर कर सकते है.

ऐसा नहीं है कि आजकल के युवा  ब्लॉग नही लिख रहे है पर निश्चित तौर पर ब्लॉग लिखने वालों की संख्या में कमी आई है.

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए एक सर्वे में पाया गया कि 2006 से 2009 के बीच 12 से 17 साल के युवाओं में ब्लॉग लिखने का  चलन आधा हो गया.

अब इस उम्र वर्ग के केवल 14 फीसदी युवा ब्लॉगिंग करते हैं. 18 से 33 साल के युवाओं में भी पिछले साल ब्लॉगिंग के चलन में कमी देखी गई.

मेरे कई ऐसे मित्र है जो पहले तो ब्लॉग लिखते थे पर अब समय की कमी की वजह से इसे अपडेट नहीं कर पा रहे है.  हां ये जरुर है की अब वो अपना समय ट्विटर और  फेसबुक  पर ज्यादा दे रहे है.

आने वाले समय में  ब्लॉगिंग की दुनिया का भविष्य क्या होगा यह तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता पर इतना जरुर है ही अभी युवाओं पर पूरी तरह से ट्विटर और फेसबुक का प्रभाव है और यह कब तक रहेगा यह कहा नहीं जा सकता.


पर हर चीज का एक स्वर्णकाल होता है. ऑरकुट जब शुरू हुआ था तो इस ने भी जल्द  ही युवाओं के बीच अपनी पकड़ बना ली थी. पर फेसबुक और ट्विटर आ जाने से अब ऑरकुट की चमक फीकी पड़ गई है.


उम्मीद की जा सकती है कि फेसबुक और ट्विटर के दिन भी लद सकते हैं पर उस समय इनकी जगह लेने कोई नई चीज आ जाएगी.

Monday, February 7, 2011

कांग्रेस का पुराना फ़ॉर्मूला नए अंदाज में


फिल्म अभिनेता और प्रजा राज्यम पार्टी (पीआरपी)  के अध्यक्ष चिरंजीवी की पूरी पार्टी का  कांग्रेस पार्टी में विलय कुछ और नहीं दोनों  पार्टियों की अवसरवादिता ही है.पर राजनीति में इन बातों की छुट भी है.अगर राजनीतिक पार्टियां इस तरह की कवायद नहीं करेगी तो और क्या करेगी.

खैर,  पीआरपी का कांग्रेस में विलय फिलहाल दोनों की राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि एक तरफ  वाई एस जगन मोहन  रेड्डी  राज्य की कांग्रेस पार्टी की स्थिरता के लिए खतरा बने हुए है वही दूसरी तरह चिरंजीवी अपने 18 विधायकों  के साथ राज्य में प्रभावी भूमिका की तलाश  में है जो अबतक उन्हें नहीं मिल पा रही थी.


गौरतलब है कि आंध्र प्रदेश कि 294 सदस्यीय विधान मंडल में कांग्रेस के 155 विधायक है जिसमें से 25 विधायकों का जगन मोहन रेड्डी अपने पक्ष में होने का दावा कर रहे  हैं.


राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) के रहते  पीआरपी  को यह मालुम  है कि आने वाले सालों में भी उसके राज्य  की सत्ता तक पहुंच संभव नहीं है लिहाजा उसने कांग्रेस  के विलय में ही अपनी भलाई दिखी.

हाल हो  में  बीके श्रीकृष्ण आयोग ने तेलंगाना मसले पर जो अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी उसको लेकर भी कांग्रेस  पसोपेश में है.इस रिपोर्ट में आयोग ने मूलतः पांच सुझाव दिए हैं जिसे लेकर खुद पार्टी के अन्दर एक राय कायम नहीं हो पा रही है.

आंध्रप्रदेश कांग्रेस विधायक और सांसदों में एक मत नहीं है. तेलंगाना क्षेत्र के सांसद और विधयाक अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे हैं. उधर तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी ने अलग तेलंगाना राज्य से कम नहीं के रुख पर कयाम है.

ऐसे में कांग्रेस ने चिरंजीवी की पार्टी को मिलाकर वहां की सरकार की  स्थिरता का इंतज़ाम करती हुई  दिख रही है.कांग्रेस जब कभी भी इस तरह के राजनीतिक संकट में पड़ती है तो वहां  की विपक्षी पार्टी को मिला लेते है और बदले में पार्टी के मुखिया और अन्य  लोगों को महत्वपूर्ण पदों से नवाज देती है.

अलग झारखंड की मांग आजादी से पहले से उठती रही थी  पर उस वक़्त भी कांग्रेस ने तबके संयुक्त बिहार के  झारखंड आन्दोलन  के प्रणेता जयपाल सिंह को पार्टी में मिला लिया और अलग राज्य के आन्दोलन की गति  को कुंद कर दिया.

बाद में भी जब छत्तीसगढ़  और उत्तराखंड अलग हुआ तो कांग्रेस की कोशिश यही रही की ऐसा होने न पाए पर दोनों ही राज्यों में अपने आपको कमजोर पा कर वह नए राज्य के गठन के लिए तैयार हो गई.

कांग्रेस की अवधारणा छोटे राज्यों की नहीं रही है.साथ ही बड़े राज्यों का विकास कैसे हो इसका भी कोई फ़ॉर्मूला उनके पास नहीं होता है.

प्रजा राज्य पार्टी का कांग्रेस में विलय कांग्रेस की इसी नीति का परिचायक है.पीआरपी  वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी तो नहीं है पर जितने  विधायक  उसके पास है वह जगन समर्थित विधायकों के अलग होने पर सरकार को गिरने से बचा सकती है. जिस तरह के हालत आंध्र प्रदेश में है उसे देखते हुए नहीं लगता है कि कांग्रेस अलग तेलंगान राज्य की मांग को ज्यादा  दिनों तक रोक पाएगी.पीआरपी का कांग्रेस में विलय इसी बात को दर्शाता है.

पीआरपी का विलय भी बहुत ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं है.आज वह जिस तरह वह अभी  कांग्रेस में मिली  है उसी  तरह  अगर कल  वह वहां  की परिस्तिथियों को देखते हुए  कांग्रेस  पार्टी से अलग हो जाए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.

Sunday, January 16, 2011

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का सराहनीय फैसला

पिछले दिनों राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग  ने अपने एक फैसले में एक भिखारी को 50000 रूपए मुआवजा देने का आदेश दिया.

भिखारी का नाम शेल्टन मेसरवास है. जो पणजी गोवा का रहने वाला है.47 वर्षीय इस भिखारी को एक पुलिसकर्मी ने उठाकर कूड़ेदान  में फ़ेंक दिया था. अब आयोग ने इस पुलिसकर्मी के वेतन से यह रकम देने का आदेश दिया है.

हाल के मानवाधिकार आयोग के फैसलों में  से इस फैसले का ख़ास महत्त्व है क्योंकि आयोग का यह फैसला एक व्यक्ति के मानवाधिकार को बड़ी  ही सूक्ष्मता से परिभाषित करता है.

दरअसल भारत जैसे देश में जहां जान की कीमत समझी नहीं जाती है वही यह फैसला एक बेहद  उम्दा नजीर  है और यह लोगों को आईना  दिखाने का काम भी करेगा.

यह फैसला आने वालों दिनों में राज्य मानवाधिकार आयोगों को  भी इस तरह के फैसले लेने में प्रेरित करेगा.